Posted: 23 Feb 2011 04:57 AM PST
जग में आ के जाना हमने जग वालो का भेद निराला
अरे जग में आ के जाना हमने जग वालो का भेद निराला
ऊपर से है चेहरा गोरा अंदर से दिल गहरा काला
जग में आ के जाना हमने जग वालो का भेद निराला
जब तक रहे मतलब किसी से उसे सर पर बिठाये फिरते है
जब तक रहे मतलब किसी से उसे सर पर बिठाये फिरते है
जो मतलब निकल गया तो फिर पदचिन्ह भी नहीं दिखाई देते है
कहते है ये तन मन धन तेरा ही तो है सब यारा
कहते है ये तन मन धन तेरा ही तो है सब यारा
जो आई मुसीबत तो पता चला कौन है तेरा किसको है तू प्यारा
जग में आ के जाना हमने जग वालो का भेद निराला
ऊपर से है चेहरा गोरा अंदर से दिल गहरा काला
महफ़िल में कई बार लोगो को, सचाई का दम भरते देखा है
में हूँ सचा में हूँ अच्छा, ये कहते मैंने देखा है
फिर मैंने ही उन लोगो को कालेपण की छाप छोड़ते देखा है
कहते है जो में सबसे सच्चा, सबसे झूठापण भी मैंने उनमे देखा है
जो भी देखा, जैसा देखा, जग का भेद मैंने देखा है
जग में आ के देखा हमने जग वालो का भेद निराला
ऊपर से है चेहरा गोरा अंदर से दिल गहरा काला
वक्त है ऐसा पता चले ना, कोण है गोरा कोण काला
जितना बड़ा देखा है किसी को अंदर से उतना ही काला
जग में आ के जाना हमने जग वालो का भेद निराला
ऊपर से है चेहरा गोरा अंदर से दिल गहरा काला
चारो तरफ में देख उन्ही को, चारो तरफ में देख उन्ही को
पी जाता हू ज़हर का प्याला, .
जग में आ के जाना हमने जग वालो का भेद निराला
ऊपर से है चेहरा गोरा अंदर से दिल गहरा काला
उपरोक्त रचना के लेखक -
सुल्तान सिंह राठौड़ "पटवारी"
कोल्लेक्ट्राते, चुरू
मोबाइल . ०७७४२९०४१४१
(यह पोस्ट ज्ञान दर्पण ब्लॉग से ली गई है)
arvind bharti goswami
breaking news
गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011
शनिवार, 19 फ़रवरी 2011
स्वधर्म का ज्ञान आवश्यक है
मनुष्य सदेव ही दूसरे को जानने में लगा रहता है |वह दूसरे के ज्ञान ,दूसरे के धन दूसरे के मान-सम्मान,दूसरे की कार्य प्रणाली ,दूसरे का चाल-चलन और यहाँ तक कि अपना सारा जीवन दूसरे के मन और जीवन को ताकने में लगा देता है |वह सदेव कुछ लोगो की प्रशंसा और कुछ की निन्दा करने में अपना अमूल्य जीवन ,समय और धन व्यतीत करता रहता है |परिणाम होता है उसे केवल शून्य हाथ लगता है, अर्थात उसका सारा प्रयास निरर्थक जाता है क्योंकि ,किसी दूसरे के मन कि थाह लगाना तो अँधेरे में भटकने जैसा है | जितना परिश्रम मनुष्य दूसरे को जानने में करता है यदि उसका थोडासा प्रयत्न भी स्वयं को जानने में कर ले तो निश्चित ही वह अपने को जानने लगेगा |वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य स्वयं को उतना भी नहीं जानपता जितना कि वह दूसरो को जान लेता है, परिणाम होता है कि वह सदेव ऐसा कार्य करता है जो स्वयं उसके अहित का होता है |
गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि "मनुष्य स्वयं ही स्वयं का शत्रु है और स्वयं ही स्वयं का हितेषी भी " |अर्थात हमारे सुख दुःख का कारण कदापि कोई और नहीं होता बल्कि हम स्वयं अपने ही कर्मो के परिणाम स्वरूप फल प्राप्त करते है |जैसा बीज किसान खेत में बोता है, वैसी ही फसल भी प्राप्त करता है |चूँकि हम कभी भी अपने को जानने का प्रयत्न नहीं करते तो फिर हम अपनी हर स्थिति के लिए दोष भी दूसरे को हो देना उचित समझते है |आपको ऐसे बहुत से लोग रोते हुए मिलेंगे जो अपनी हर असफलता के पीछे किसी न किसी और को उत्तरदायी ठहराया करते है |उसका परिणाम भी तुरंत मिलता है ऐसे लोग कभी उन्नति के मार्ग का परिचय नहीं प्राप्त कर पाते है |अब आप यह मानिये कि दूसरे लोग तो एक उपकरण या साधन की भांति है, जो न बुरे है न अच्छे ,अब यह तो उनके उपयोग कर्ता पर निर्भर है न कि वह उससे हानि उठाये या कि लाभ .,,,,,,इस संसार में बिष का अपना महत्व है और अमृत का अपना ,यदि आप बिष-पान करके यह दोष बिष पर मढ़े कि बिष ने हमारी जान लेली तो क्या बिष स्वयं आप के मुहं में आया था ????? कदापि नहीं ,,,,
दरसल जब हम दूसरे को जानने में लगते है तब हम परमुखापेक्षी होते है जबकि यदि हम स्वयं को जानने लगे तो फिर हम परमुखापेक्षी नहीं बल्कि स्वयं अपने को तौलते हुए हर कार्य करेंगे |तब हम पर दूसरे की करनी और रहन सहन ,उसके धर्म उसकी गतिविधियों का उतना प्रभाव नहीं पड़ेगा जितना की आज हमारे जीवन में हावी है |अब हम हमेशा भयभीत रहते है कि हमारे अमुख कार्य का लोगो पर क्या प्रभाव पड़ेगा या लोग क्या कहंगे ? जबकि लोग क्या कहेंगे, उन्हें भी तो आप जैसा ही रोग लगा है कि हमारे कार्यो पर लोग क्या कहेंगे ?यानि आप कुछ भी करो उन्हें इस बात की फुर्सत ही नहीं की क्या कहे और क्या सोचे |क्योंकि जो स्वयं परामुखापेक्षी नहीं उन्हें तो आपके कार्यो पर नजर रखने की आदत ही नहीं और जिन्हें आदत है वे तो स्वयं ही डूबने वाली नाव पर सवार है इसलिए उनकी टिप्पणी कोई मायने ही नहीं रखती है |
अब बात उठती है कि तो आखिर हम करे क्या ????? यह सवाल अक्सर लोगो को सालता रहता है कि जी हम करे क्या ???यह सवाल ही इस बात का धोतक है कि वास्तव में हम कुछ करना ही नहीं चाहते बल्कि कर्म करने से बचने के लिए किसी तर्क की ढाल की खोज करना चाहते है |यह अटल सत्य है कि हमारे जन्म और मृत्यु पर निसंदेह हमारा बस नहीं है |यह निश्चित रूपसे सृष्टि की किसी वैज्ञानिक और अध्यात्मिक प्रक्रिया का परिणाम मात्र है |जब हमारे जन्म पर हमारा अधिकार नहीं तो फिर हमारे स्व-धर्म पर भी हमारा अधिकार नहीं होसकता है |यह भी निश्चित रूप से पहले से ही निर्धारित होचुका होगा | जब हमारा स्व-धर्म पहले से ही निर्धारित है तो उसे चुनने का तो हमे अधिकार नहीं है| क्योंकि हम या तो नास्तिक हो सकते है या फिर आस्तिक ,दोनों एक साथ तो नहीं होसकते न ??? यदि हम आस्तिक है और यह मानते है कि ईश्वर या प्रकृति का कोई नियंत्रक है तो निश्चित रूपसे किसी प्राक्रतिक और अध्यात्मिक कारण से ही हमारा जन्म हमारे माता-पिता के घर हुआ है |जिस प्रकार हमें अपनी जननी और जनक को स्व-माता और स्व-पिता मानने में हर्ष और अनुकूलता महशूश होती है |वैसे ही स्वधर्म में अपने को समर्पित करने में अनुकूलता प्राप्त होती है | इसके लिए गीता के इन श्लोको का उदहारण यहाँ उचित होगा |
"श्रेयानाम स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्टितात !
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह : !! 35!! तीसरा अध्याय
भली प्रकार आचरण किये गए दूसरे के धर्म ,गुण रहित अपना कल्याणकारी है |अपने धर्म का पालन करते हुए तो मरना भी कल्याणकारक है ,जबकि दूसरे का धर्म तो भय को देने वाला होता है |
"श्रेयानाम स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्टितात !
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम !!४७!!अठारहवा अध्याय
भली प्रकार आचरण किये गए दूसरे के धर्म ,गुण रहित अपना कल्याणकारी है |स्वभाव से नियत किये हुए कर्म अर्थात वर्नाधार्मानुसार नियत कर्म कर्ता हुआ ,मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता है |
"सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत !
सर्वारम्भा हि दोषेण धुमेनाग्निरिवावृता !!४८!!अठारहवा अध्याय
हे अर्जुन दोषयुक्त भी जन्म के साथ उत्पन स्वधर्म को नहीं त्यागना चाहिए !,निश्चित ही धुवाँ से अग्नि की भांति सभी कर्मो का आरंभ तो दोष से ढका हुआ है !
अब हम जिस वर्ण में पैदा हुए है उसके अनुसार हमारा जो भी कर्म है ,वास्तव में यही हमारा स्वधर्म है और इसका ज्ञान हमारे लिए अति आवश्यक है |हम स्वधर्म के बिना जी भी सकते है, किन्तु वह जीवन सफल नहीं कहा जासकता ठीक वैसे ही जिस प्रकार अपनी जननी के बगेर बालक का पालन पोषण हो तो जाता है ,किन्तु स्वमाता तो आखिर स्व-माता ही होती है |विमाता भले ही कितना ही ऊँचे दर्जे का स्नेह और ममता से पालन करले किन्तु शिशु में जो पालन अपनी जननी के द्वारा होता है उसकी तुलना तो नहीं ही की जासकती न !
इसलिए हम सभी का यह परम कर्तव्य है की हम सर्वप्रथम अपने धर्म को पहिचाने जो निश्चित है और उसका ज्ञान प्राप्त करे ताकि हमारा जीवन सार्थक होसके |
"जय क्षात्र-धर्म "
कुँवरानी निशा कँवर नरुका
श्री क्षत्रिय वीर ज्योति
( ज्ञान दर्पण)
गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि "मनुष्य स्वयं ही स्वयं का शत्रु है और स्वयं ही स्वयं का हितेषी भी " |अर्थात हमारे सुख दुःख का कारण कदापि कोई और नहीं होता बल्कि हम स्वयं अपने ही कर्मो के परिणाम स्वरूप फल प्राप्त करते है |जैसा बीज किसान खेत में बोता है, वैसी ही फसल भी प्राप्त करता है |चूँकि हम कभी भी अपने को जानने का प्रयत्न नहीं करते तो फिर हम अपनी हर स्थिति के लिए दोष भी दूसरे को हो देना उचित समझते है |आपको ऐसे बहुत से लोग रोते हुए मिलेंगे जो अपनी हर असफलता के पीछे किसी न किसी और को उत्तरदायी ठहराया करते है |उसका परिणाम भी तुरंत मिलता है ऐसे लोग कभी उन्नति के मार्ग का परिचय नहीं प्राप्त कर पाते है |अब आप यह मानिये कि दूसरे लोग तो एक उपकरण या साधन की भांति है, जो न बुरे है न अच्छे ,अब यह तो उनके उपयोग कर्ता पर निर्भर है न कि वह उससे हानि उठाये या कि लाभ .,,,,,,इस संसार में बिष का अपना महत्व है और अमृत का अपना ,यदि आप बिष-पान करके यह दोष बिष पर मढ़े कि बिष ने हमारी जान लेली तो क्या बिष स्वयं आप के मुहं में आया था ????? कदापि नहीं ,,,,
दरसल जब हम दूसरे को जानने में लगते है तब हम परमुखापेक्षी होते है जबकि यदि हम स्वयं को जानने लगे तो फिर हम परमुखापेक्षी नहीं बल्कि स्वयं अपने को तौलते हुए हर कार्य करेंगे |तब हम पर दूसरे की करनी और रहन सहन ,उसके धर्म उसकी गतिविधियों का उतना प्रभाव नहीं पड़ेगा जितना की आज हमारे जीवन में हावी है |अब हम हमेशा भयभीत रहते है कि हमारे अमुख कार्य का लोगो पर क्या प्रभाव पड़ेगा या लोग क्या कहंगे ? जबकि लोग क्या कहेंगे, उन्हें भी तो आप जैसा ही रोग लगा है कि हमारे कार्यो पर लोग क्या कहेंगे ?यानि आप कुछ भी करो उन्हें इस बात की फुर्सत ही नहीं की क्या कहे और क्या सोचे |क्योंकि जो स्वयं परामुखापेक्षी नहीं उन्हें तो आपके कार्यो पर नजर रखने की आदत ही नहीं और जिन्हें आदत है वे तो स्वयं ही डूबने वाली नाव पर सवार है इसलिए उनकी टिप्पणी कोई मायने ही नहीं रखती है |
अब बात उठती है कि तो आखिर हम करे क्या ????? यह सवाल अक्सर लोगो को सालता रहता है कि जी हम करे क्या ???यह सवाल ही इस बात का धोतक है कि वास्तव में हम कुछ करना ही नहीं चाहते बल्कि कर्म करने से बचने के लिए किसी तर्क की ढाल की खोज करना चाहते है |यह अटल सत्य है कि हमारे जन्म और मृत्यु पर निसंदेह हमारा बस नहीं है |यह निश्चित रूपसे सृष्टि की किसी वैज्ञानिक और अध्यात्मिक प्रक्रिया का परिणाम मात्र है |जब हमारे जन्म पर हमारा अधिकार नहीं तो फिर हमारे स्व-धर्म पर भी हमारा अधिकार नहीं होसकता है |यह भी निश्चित रूप से पहले से ही निर्धारित होचुका होगा | जब हमारा स्व-धर्म पहले से ही निर्धारित है तो उसे चुनने का तो हमे अधिकार नहीं है| क्योंकि हम या तो नास्तिक हो सकते है या फिर आस्तिक ,दोनों एक साथ तो नहीं होसकते न ??? यदि हम आस्तिक है और यह मानते है कि ईश्वर या प्रकृति का कोई नियंत्रक है तो निश्चित रूपसे किसी प्राक्रतिक और अध्यात्मिक कारण से ही हमारा जन्म हमारे माता-पिता के घर हुआ है |जिस प्रकार हमें अपनी जननी और जनक को स्व-माता और स्व-पिता मानने में हर्ष और अनुकूलता महशूश होती है |वैसे ही स्वधर्म में अपने को समर्पित करने में अनुकूलता प्राप्त होती है | इसके लिए गीता के इन श्लोको का उदहारण यहाँ उचित होगा |
"श्रेयानाम स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्टितात !
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह : !! 35!! तीसरा अध्याय
भली प्रकार आचरण किये गए दूसरे के धर्म ,गुण रहित अपना कल्याणकारी है |अपने धर्म का पालन करते हुए तो मरना भी कल्याणकारक है ,जबकि दूसरे का धर्म तो भय को देने वाला होता है |
"श्रेयानाम स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्टितात !
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम !!४७!!अठारहवा अध्याय
भली प्रकार आचरण किये गए दूसरे के धर्म ,गुण रहित अपना कल्याणकारी है |स्वभाव से नियत किये हुए कर्म अर्थात वर्नाधार्मानुसार नियत कर्म कर्ता हुआ ,मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता है |
"सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत !
सर्वारम्भा हि दोषेण धुमेनाग्निरिवावृता !!४८!!अठारहवा अध्याय
हे अर्जुन दोषयुक्त भी जन्म के साथ उत्पन स्वधर्म को नहीं त्यागना चाहिए !,निश्चित ही धुवाँ से अग्नि की भांति सभी कर्मो का आरंभ तो दोष से ढका हुआ है !
अब हम जिस वर्ण में पैदा हुए है उसके अनुसार हमारा जो भी कर्म है ,वास्तव में यही हमारा स्वधर्म है और इसका ज्ञान हमारे लिए अति आवश्यक है |हम स्वधर्म के बिना जी भी सकते है, किन्तु वह जीवन सफल नहीं कहा जासकता ठीक वैसे ही जिस प्रकार अपनी जननी के बगेर बालक का पालन पोषण हो तो जाता है ,किन्तु स्वमाता तो आखिर स्व-माता ही होती है |विमाता भले ही कितना ही ऊँचे दर्जे का स्नेह और ममता से पालन करले किन्तु शिशु में जो पालन अपनी जननी के द्वारा होता है उसकी तुलना तो नहीं ही की जासकती न !
इसलिए हम सभी का यह परम कर्तव्य है की हम सर्वप्रथम अपने धर्म को पहिचाने जो निश्चित है और उसका ज्ञान प्राप्त करे ताकि हमारा जीवन सार्थक होसके |
"जय क्षात्र-धर्म "
कुँवरानी निशा कँवर नरुका
श्री क्षत्रिय वीर ज्योति
( ज्ञान दर्पण)
शनिवार, 13 फ़रवरी 2010
पहले शुद्धिकरण फिर पदग्रहण
रतलाम। रतलाम जनपद की ग्राम पंचायत सेजावता में सरपंच, उपसरपंच और पंचों ने पदभार ग्रहण करने से पहले यज्ञ, अनुष्ठान और पंचायत का शुद्धिकरण किया। सभी ने यज्ञ में आहुतियां दीं और इसके बाद पद और गोपनीयता की शपथ ली।
सेजावता सरपंच पद इस बार पिछड़ा वर्ग पुरूष के लिए आरक्षित था। यहां मदनलाल धाकड़ ने चुनाव जीता। जीतने के बाद 11 फरवरी को पहले सम्मेलन से इनका कार्यकाल पूरा हो गया, लेकिन कुर्सी संभालने के पहले उन्हें पूर्व के सरपंचों के कार्यकाल की याद आई तो कुछ वरिष्ठ ग्रामीणों से चर्चा की कि क्या किया जाए। गांव के पूर्व उपसरपंच जसवंत गिरी गोस्वामी सहित अन्य ने सलाह दी कि अनुष्ठान, हवन करने के बाद पदभार ग्रहण करें ताकि शुद्धि हो जाए और कार्यकाल निर्विघ्न पूरा हो। धाकड़ ने इस सलाह पर अमल किया और गुरूवार दोपहर अनुष्ठान और हवन का समय तय किया। पंडित के सान्निध्य में हवन, पूजन, अनुष्ठान हुआ और सरपंच धाकड़, उपसरपंच टीकमसिंह पंवार के साथ गांव के 20 पंचों ने आहुतियां दीं। इसके बाद शपथ ग्रहण की गई।
इसलिए किया शुद्धिकरण
ग्राम पंचायत सेजावता में सरपंच, उपसरपंच और पंचों को शुद्धिकरण के बाद पदभार ग्रहण करने की आखिर जरूरत क्यों पड़ी। इसके पीछे बड़ा कारण ग्रामीण मानते हैं। उनके अनुसार इस ग्राम पंचायत में कुछ ऎसा हुआ है कि एक को छोड़कर जितने भी सरपंच बने हैं, वे कार्यकाल पूरा तक नहीं कर पाए। सभी को आर्थिक अनियमितता के चलते पद से हाथ धोना पड़ा है। ग्रामीणों का मानना है कि गांव के सरपंच की कुर्सी ऎसी है कि यहां जो भी आया वह किसी न किसी घोटाले में फंसा है, इसलिए इस बार ऎसा किया गया।
तीन साल में पांच
ग्राम पंचायत अब तक के तीन कार्यकाल में पांच सरपंच देख चुकी है। 2010 से छठे सरपंच का कार्यकाल प्रारंभ हुआ है। 1994 से 1999 तक दो, 1999 से 2004 तक दो और 2004 से 2010 तक एक सरपंच यहां रहे हैं। सभी पर आर्थिक अनियमितताओं के प्रकरण चले। चार ने पद गंवा दिए, जबकि पांचवें सरपंच ने कार्यकाल जैसे-तैसे पूरा किया। जिस एक सरपंच ने कार्यकाल पूरा किया है उस पर भी कुछ ऎसा ही प्रकरण चल रहा है, जिसका निराकरण अभी होना है।
अब तक के सरपंच
1994 में रंभाबाई चुनाव जीतीं और सरपंच बनीं, लेकिन ढाई वर्ष बाद ही उन पर पंचायत राज अधिनियम की धारा 40 की कार्रवाई हुई और पद से हटना पड़ा। उपचुनाव में रेशमबाई चुनाव जीतीं। अन्य पंचायतों के साथ इनका कार्यकाल पूरा होता उसके पहले ही इन पर भी आर्थिक अनियमितता का प्रकरण दर्ज हो गया और इन्हें जेल जाना पड़ा। 1999 में चुनाव हुए तो हीरालाल परमार सरपंच बने। ढाई वर्ष तक सरपंच रहने के बाद इंदिरा कुटीर अपने ही परिवार में देने के मामले में इन पर भी धारा 40 की तलवार लटकी और पद से हाथ धोना पड़ा। उपचुनाव में शंकरलाल मालवीय सरपंच बने तो ये भी ढाई लाख रूपए के गबन के मामले में फंस गए। इनके केस का निपटारा अभी नहीं हुआ है। 2004 में दुर्गाबाई सरपंच बनीं। इन्होंने अब तक कार्यकाल तो पूरा किया, लेकिन इन पर भी आर्थिक अनियमितता का प्रकरण चल रहा है। इसमें निर्णय आना शेष है। अब मदनलाल धाकड़ सरपंच बने हैं।
कमलसिंह/ अरविंद गोस्वामी
सेजावता सरपंच पद इस बार पिछड़ा वर्ग पुरूष के लिए आरक्षित था। यहां मदनलाल धाकड़ ने चुनाव जीता। जीतने के बाद 11 फरवरी को पहले सम्मेलन से इनका कार्यकाल पूरा हो गया, लेकिन कुर्सी संभालने के पहले उन्हें पूर्व के सरपंचों के कार्यकाल की याद आई तो कुछ वरिष्ठ ग्रामीणों से चर्चा की कि क्या किया जाए। गांव के पूर्व उपसरपंच जसवंत गिरी गोस्वामी सहित अन्य ने सलाह दी कि अनुष्ठान, हवन करने के बाद पदभार ग्रहण करें ताकि शुद्धि हो जाए और कार्यकाल निर्विघ्न पूरा हो। धाकड़ ने इस सलाह पर अमल किया और गुरूवार दोपहर अनुष्ठान और हवन का समय तय किया। पंडित के सान्निध्य में हवन, पूजन, अनुष्ठान हुआ और सरपंच धाकड़, उपसरपंच टीकमसिंह पंवार के साथ गांव के 20 पंचों ने आहुतियां दीं। इसके बाद शपथ ग्रहण की गई।
इसलिए किया शुद्धिकरण
ग्राम पंचायत सेजावता में सरपंच, उपसरपंच और पंचों को शुद्धिकरण के बाद पदभार ग्रहण करने की आखिर जरूरत क्यों पड़ी। इसके पीछे बड़ा कारण ग्रामीण मानते हैं। उनके अनुसार इस ग्राम पंचायत में कुछ ऎसा हुआ है कि एक को छोड़कर जितने भी सरपंच बने हैं, वे कार्यकाल पूरा तक नहीं कर पाए। सभी को आर्थिक अनियमितता के चलते पद से हाथ धोना पड़ा है। ग्रामीणों का मानना है कि गांव के सरपंच की कुर्सी ऎसी है कि यहां जो भी आया वह किसी न किसी घोटाले में फंसा है, इसलिए इस बार ऎसा किया गया।
तीन साल में पांच
ग्राम पंचायत अब तक के तीन कार्यकाल में पांच सरपंच देख चुकी है। 2010 से छठे सरपंच का कार्यकाल प्रारंभ हुआ है। 1994 से 1999 तक दो, 1999 से 2004 तक दो और 2004 से 2010 तक एक सरपंच यहां रहे हैं। सभी पर आर्थिक अनियमितताओं के प्रकरण चले। चार ने पद गंवा दिए, जबकि पांचवें सरपंच ने कार्यकाल जैसे-तैसे पूरा किया। जिस एक सरपंच ने कार्यकाल पूरा किया है उस पर भी कुछ ऎसा ही प्रकरण चल रहा है, जिसका निराकरण अभी होना है।
अब तक के सरपंच
1994 में रंभाबाई चुनाव जीतीं और सरपंच बनीं, लेकिन ढाई वर्ष बाद ही उन पर पंचायत राज अधिनियम की धारा 40 की कार्रवाई हुई और पद से हटना पड़ा। उपचुनाव में रेशमबाई चुनाव जीतीं। अन्य पंचायतों के साथ इनका कार्यकाल पूरा होता उसके पहले ही इन पर भी आर्थिक अनियमितता का प्रकरण दर्ज हो गया और इन्हें जेल जाना पड़ा। 1999 में चुनाव हुए तो हीरालाल परमार सरपंच बने। ढाई वर्ष तक सरपंच रहने के बाद इंदिरा कुटीर अपने ही परिवार में देने के मामले में इन पर भी धारा 40 की तलवार लटकी और पद से हाथ धोना पड़ा। उपचुनाव में शंकरलाल मालवीय सरपंच बने तो ये भी ढाई लाख रूपए के गबन के मामले में फंस गए। इनके केस का निपटारा अभी नहीं हुआ है। 2004 में दुर्गाबाई सरपंच बनीं। इन्होंने अब तक कार्यकाल तो पूरा किया, लेकिन इन पर भी आर्थिक अनियमितता का प्रकरण चल रहा है। इसमें निर्णय आना शेष है। अब मदनलाल धाकड़ सरपंच बने हैं।
कमलसिंह/ अरविंद गोस्वामी
बुधवार, 12 अगस्त 2009
मंगलवार, 11 अगस्त 2009
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